बुधवार, 16 मई 2012

आश्चर्य ही आश्चर्य ...... (कुँवर जी)

प्रकाश-पुन्ज को 
अभी निहारा भी न था
जी भर के,
ना समेटा ही था अभी
आश्चर्य 

आँखे खुलने का,
कि तभी
शाम का डर समां गया मन में,
सूरज के भी ढलने का रोमांच
डरा ही तो रहा था!

तम के वहम से सहमा मन
और भी चकित हो गया
जब
देखा कि
तम को भेदती हुई
वो महीन सी किरण
विराट हुई जाती है
फूटी है मुझ ही से...

जय हिन्द,जय श्रीराम!
कुँवर जी,

15 टिप्‍पणियां:

  1. तम के वहम से सहमा मन
    और भी चकित हो गया
    जब
    देखा कि
    तम को भेदती हुई
    वो महीन सी किरण
    विराट हुई जाती है
    फूटी है मुझ ही से...एक अलौकिक एहसास

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  2. दिव्य अनुभूति!

    भाव बहुत स्पष्ट.... साधु.

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  3. bahut hi shandar rachna

    आखिर असली जरुरतमंद कौन है
    भगवन जो खा नही सकते या वो जिनके पास खाने को नही है
    एक नज़र हमारे ब्लॉग पर भी
    http://blondmedia.blogspot.in/2012/05/blog-post_16.html

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  4. तम के वहम से सहमा मन
    और भी चकित हो गया
    जब
    देखा कि
    तम को भेदती हुई
    वो महीन सी किरण
    विराट हुई जाती है
    फूटी है मुझ ही से......Awesome ...

    .

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  5. हर एक पंक्तियाँ अद्भुत सुन्दर है

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  6. आपकी पोस्ट 17/5/2012 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें

    चर्चा - 882:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  7. तम के वहम से सहमा मन
    और भी चकित हो गया
    जब
    देखा कि
    तम को भेदती हुई
    वो महीन सी किरण
    विराट हुई जाती है
    फूटी है मुझ ही से.....अति सुन्दर अलोकिक दर्शन ..बहुत सुन्दर दार्शनिक भाव हैं रचना में

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  8. खूबसूरत.........................

    बहुत बढ़िया...

    अनु

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  9. तम के वहम से सहमा मन
    और भी चकित हो गया
    जब
    देखा कि
    तम को भेदती हुई
    वो महीन सी किरण
    विराट हुई जाती है
    फूटी है मुझ ही से...
    ..bahut sundar...

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  10. जी धन्यवाद्.
    बहुत दिनों के बाद आगमन हुआ आपका बहुत अच्छाल लगा,स्वागत है जी,
    कुँवर जी,

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